लेखनी कहानी -09-Mar-2023- पौराणिक कहानिया
सोफ़िया ने तीन
दिन तक ऑंखें
न खोलीं। मन
न जाने किन
लोकों में भ्रमण
किया करता था।
कभी अद्भुत, कभी
भयावह दृश्य दिखाई
देते। कभी ईसा
की सौम्य मूर्ति
ऑंखों के सामने
आ जाती, कभी
किसी विदुषी महिला
के चंद्रमुख के
दर्शन होते, जिन्हें
यह सेंट मेरी
समझती।
चौथे दिन प्रात:काल उसने
ऑंखें खोलीं, तो
अपने को एक
सजे हुए कमरे
में पाया। गुलाब
और चंदन की
सुगंधा आ रही
थी। उसके सामने
कुरसी पर वही
महिला बैठी हुई
थी, जिन्हें उसने
सुषुप्तावस्था में सेंट
मेरी समझा था,
और सिरहाने की
ओर एक वृध्द
पुरुष बैठे थे,
जिनकी ऑंखों से
दया टपकी पड़ती
थी। इन्हीं को
कदाचित् उसने, अर्ध्द चेतना
की दशा में,
ईसा समझा था।
स्वप्न की रचना
स्मृतियों की पुनरावृत्ति-मात्रा होती है।
सोफ़िया ने क्षीण
स्वर में पूछा-मैं कहाँ
हूँ? मामा कहाँ
हैं?
वृध्द पुरुष ने कहा-तुम कुँवर
भरतसिंह के घर
में हो। तुम्हारे
सामने रानी साहबा
बैठी हुई हैं,
तुम्हारा जी अब
कैसा है?
सोफ़िया-अच्छी हूँ, प्यास
लगी है। मामा
कहाँ हैं, पापा
कहाँ हैं, आप
कौन हैं?
रानी-यह डॉक्टर
गांगुली हैं, तीन
दिन से तुम्हारी
दवा कर रहे
हैं। तुम्हारे पापा-मामा कौन
हैं?
सोफ़िया-पापा का
नाम मि. जॉन
सेवक है। हमारा
बँगला सिगरा में
है।
डॉक्टर-अच्छा, तुम मि.
जॉन सेवक की
बेटी हो? हम
उसे जानता है;
अभी बुलाता है।
रानी-किसी को
अभी भेज दूँ?
सोफ़िया-कोई जल्दी
नहीं है, आ
जाएँगे। मैंने जिस आदमी
को पकड़कर खींचा
था, उसकी क्या
दशा हुई?
रानी-बेटी, वह ईश्वर
की कृपा से
बहुत अच्छी तरह
है। उसे जरा
भी ऑंच नहीं
लगी। वह मेरा
बेटा विनय है।
अभी आता होगा।
तुम्हीं ने तो
उसके प्राण बचाए।
अगर तुम दौड़कर
न पहुँच जातीं,
तो आज न
जाने क्या होता।
मैं तुम्हारे ऋण
से कभी मुक्त
नहीं हो सकती।
तुम मेरे कुल
की रक्षा करनेवाली
देवी हो।
सोफ़िया-जिस घर
में आग लगी
थी, उसके आदमी
सब बच गए?
रानी-बेटी, यह तो
केवल अभिनय था,
विनय ने यहाँ
एक सेवा-समिति
बना रखी है!
जब शहर में
कोई मेला होता
है, या कहीं
से किसी दुर्घटना
का समाचार आता
है, तो समिति
वहाँ पहुँचकर सेवा-सहायता करती है।
उस दिन समिति
की परीक्षा के
लिए कुँवर साहब
ने वह अभिनय
किया था।
डॉक्टर-कुँवर साहब देवता
है, कितने गरीब
लागों की रक्षा
करता है। यह
समिति, अभी थोड़े
दिन हुए, बंगाल
गई थी। यहाँ
सूर्य-ग्रहण का
स्नान होनेवाला है।
लाखों यात्राी दूर-दूर से
आएँगे। उसके लिए
यह सब तैयारी
हो रही है।
इतने में एक
युवती रमणी आकर
खड़ी हो गई।
उसके मुख से
उज्ज्वल दीपक के
समान प्रकाश की
रश्मियाँ छिटक रही
थीं। गले में
मोतियों के हार
के सिवा उसके
शरीर पर कोई
आभूषण न था।
उषा की शुभ्र
छटा मूर्तिमान् हो
गई थी।
सोफ़िया ने उसे
एक क्षण-भर
देखा, तब बोली-इंदु, तुम यहाँ
कहाँ? आज कितने
दिनों के बाद
तुम्हें देखा है?
इंदु चौंक पड़ी।
तीन दिन से
बराबर सोफ़िया को
देख रही थी,
खयाल आता था
कि इसे कहीं
देखा है; पर
कहाँ देखा है,
यह याद न
आती थी। उसकी
बातें सुनते ही
स्मृति जागृत हो गई,
ऑंखें चमक उठीं,
गुलाब खिल गया।
बोली-ओहो! सोफी,
तुम हो?
दोनों सखियाँ गले मिल
गईं। यह वही
इंदु थी, जो
सोफ़िया के साथ
नैनीताल में पढ़ती
थी। सोफ़िया को
आशा न थी
कि इंदु इतने
प्रेम से मिलेगी।
इंदु कभी पिछली
बातें याद करके
रोती, कभी हँसती,
कभी गले मिल
जाती। अपनी माँ
से उसका गुणानुवाद
करने लगी। माँ
उसका प्रेम देखकर
फूली न समाती।
अंत में सोफ़िया
ने झेंपे हुए
कहा-इंदु, ईश्वर
के लिए अब
मेरी और ज्यादा
तारीफ न करो,
नहीं तो मैं
तुमसे न बोलूँगी।
इतने दिनों तक
कभी एक खत
भी न लिखा,
मुँह-देखे का
प्रेम करती हो।
रानी-नहीं बेटी
सोफी, इंदु मुझसे
कई बार तुम्हारी
चर्चा कर चुकी
है। यहाँ किसी
से हँसकर बोलती
तक नहीं। तुम्हारे
सिवा मैंने इसे
किसी की तारीफ़
करते नहीं सुना।
इंदु-बहन, तुम्हारी
शिकायत वाजिब है, पर
करूँ क्या, मुझे
खत नहीं लिखना
आता। एक तो
बड़ी भूल यह
हुई कि तुम्हारा
पता नहीं पूछा,
और अगर पता
मालूम भी होता,
तो भी मैं
खत न लिख
सकती। मुझे डर
लगता है कि
कहीं तुम हँसने
न लगो। मेरा
पत्र कभी समाप्त
ही न होता,
और न जाने
क्या-क्या लिख
जाती।
कुँवर साहब को
मालूम हुआ कि
सोफ़िया बातें कर रही
है, तो वह
भी उसे धन्यवाद
देने के लिए
आए। पूरे छ:
फीट के मनुष्य
थे, बड़ी-बड़ी
ऑंखें, लम्बे बाल, लम्बी
दाढ़ी, मोटे कपड़े
का एक नीचा
कुरता पहने हुए
थे। सोफ़िया ने
ऐसा तेजस्वी स्वरूप
कभी न देखा
था। उसने अपने
मन में ऋषियों
की जो कल्पना
कर रखी थी,
वह बिल्कुल ऐसी
ही थी। 'इस
विशाल शरीर में
बैठी हुई विशाल
आत्मा को वह
दोनों नेत्रों से
ताक रही थी।
सोफी ने सम्मान-भाव से
उठना चाहा; पर
कुँवर साहब मधुर
, सरल स्वर में
बोले-बेटी, लेटी
रहो, तुम्हें उठने
में कष्ट होगा।
लो, मैं बैठ
जाता हूँ, तुम्हारे
पापा से मेरा
परिचय है, पर
क्या मालूम था
कि तुम मि.
सेवक की बेटी
हो। मैंने उन्हें
बुलाया है, लेकिन
मैं कहे देता
हूँ, मैं अभी
तुम्हें न जाने
दूँगा। यह कमरा
अब तुम्हारा है,
और यहाँ से
चले जाने पर
भी तुम्हें एक
बार नित्य यहाँ
आना पड़ेगा। (रानी
से) जाह्नवी, यहाँ
प्यानो मँगवाकर रख दो।
आज मिस सोहराबजी
को बुलवाकर सोफ़िया
का एक तैल
चित्र खिंचवाओ। सोहराबजी
ज्यादा कुशल है;
पर मैं नहीं
चाहता कि सोफ़िया
को उनके सामने
बैठना पड़े। वह
चित्र हमें याद
दिलाता रहेगा कि किसने
महान् संकट के
अवसर पर हमारी
रक्षा की।